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लिव इन कल्चर या रखैल कल्चर

prahar
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आगे बढऩे की दौड़ में कुछ लोग समाज के सभी बंधन तोड़ कर जीवन अपने तरीके से जीना चाहते हैं। बंधन में न बंधने के इस कल्चर को ही पिछले सात-आठ वर्षों से लिव इन कल्चर का नाम दिया गया है। कई साल तक ढका छुपा लिव इन अब पर्दे से बाहर निकल कर अधिकार मांगने लग गया है। इस बार मामला सर्वोच्च न्यायालय से निकल कर चर्चा में आया है। भारत में अब लिव इन रिलेशन वाले अधिकार मांगने लग गए है। मद्रास हाईकोर्ट ने तो बाकायदा पांच सौ रुपये गुजारा भत्ता दिए जाने का आदेश भी कर दिया था, मगर सुप्रीम कोर्ट ने फैसले पर रोक लगाते हुए उसकी नए सिरे से व्याख्या की और कहा कि भारतीय व्यवस्था में विवाह संस्था को मान्यता दी गई है। अगर इस जैसे संबंध बगैर शादी के भी समाज के सामने वर्षों तक मान्य रहे है तो उसका अधिकार बनता है मगर रखैल या नौकरानी के रूप में किसी ने कुछ समय के लिए किसी को रखा है तो उसे कोई संरक्षण नहीं दिया जा सकता।
फैसले के शब्दों पर अगर गौर किया जाय तो घरेलू हिंसा रोकने के लिए लिव इन संबंधों को मान्यता दी जा सकती है मगर उसके लिए एक दिन या सप्ताहांत गुजारने भर को घरेलू संबंध नहीं कहा जा सकता। जैसे रखैल को विवाहिता का दर्जा नहीं दिया जा सकता।
हालांकि फैसले में रखैल शब्द को लेकर कोर्ट के समक्ष विरोध भी दर्ज कराया गया और फैसले से इसे हटाने की बात कही गई लेकिन भारत में लिव इन की अगर व्याख्या की जाय तो इसे रखैल शब्द ही दिया जा सकता है। इस शब्द से भारतीय जनमानस अच्छी तरह परिचित है। ऐसे तमाम मामले इतिहास में चर्चा के विषय बने है जब अय्यास राजे-रजवाड़ों और बादशाहों ने रखैल के बच्चों पर पूरी रियासत लुटा डाली।
वही रखैल शब्द अब रूप बदल कर लिव इन बन गया है और मेट्रोज में छाया हुआ है। पुराने जमाने में रजवाड़ों के पास पैसा था आज के जमाने में मल्टीनेशनल कंपनियों के कर्ताधर्ता और उच्च पदों पर बैठे लोगों के पास पैसा है। जिसके पास पैसा है वह कर रहा है मनमानी।
कहते है तेज भागती जिंदगी में शादी बंधन का काम करती है। आगे बढऩा है तो शादी न करो। हमें यह समझ नहीं आता कि जिंदगी में पत्नी और बच्चों के साथ मिलने दो पल के सुकून को भी त्याग कर लोग कितना पैसा कमा लेना चाहते हैैं। कितना आगे भाग जाना चाहते हैैं।
मेट्रोज में बाहर से आकर रहने वाले कुछ युवकऔर युवतियां शादी से परहेज करते हुए लिव इन रिलेशन बनाते हैैं। जब तक मन किया साथ रहे जब मन भर गया या किसी मुद्दे पर तकरार हुई तो दोनों अलग अलग या फिर किसी नए पार्टनर के साथ। यह बदलाव की दस्तक है।
मद्रास हाईकोर्ट से सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा यह मामला आने वाले समय में हमारे सामाजिक संबंधों में क्रांतिकारी बदलाव का संकेत है। क्योंकि रखैल शब्द समाज ने कभी नहीं स्वीकारे मगर कोर्ट का फैसले ने लिव इन को शर्तों में बांध कर आंशिक मान्यता दे दी है।
विदेशों में ऐसे संबंध सदियों से चले आ रहे हैैं वहां जीवन भर का साथ नहीं होता। भारतीय न्यायालय चाहे ऐसे संबंधों को मान्यता दे दे। सरकार भले इसे कानून बना कर अपनी हरी झंडी दिखा दे भारतीय समाज जल्दी इसे स्वीकार नहीं कर सकता। लिव इन रिलेशन या रखैल भारतीय समाज में ढके छिपे रहे हैैं आगे भी ऐसी ही उम्मीद है। अगर ये संबंध समाज में घुल मिल गए तो बदल खो जाएगी जीवन संगिनी।
जीवन संगिनी की जरूरत जवानी के दिनों में उतनी नहीं होती जितनी जीवन के अंतिम दिनों में होती है। यही वजह है कि समाज ने रखैल को मान्यता कभी नहीं दी।
कुछ वर्षों पूर्व मेरे मामा जी का देहांत हुआ 85 से अधिक की आयु में उनकी मौत के बाद मामी भी चंद महीने ही काट पायीं। अगर लिव इन रिलेशन चले तो मौत से बहुत पहले ही लोग एकाकी जीवन से तंग आ कर जीते जी मरेंगे।

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