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अब कांपते नहीं मां बाप पर उठने वाले हाथ

prahar
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मेरे एक मित्र के बड़े भाई की शादी थी। हम वहां पहुंचे तो उनके चार भाइयों से मिले। सभी भाई मेरे मित्र की तरह ही अच्छे थे सबसे बड़े वाले बड़े कारोबारी। उनसे छोटे चार्टर एकाउंटेंट और उनसे छोटे बीजेपी के नेता और सीए साहब की ही शादी थी। और सबसे छोटे वाले मेरे मित्र मेडिकल कालेज में पढ़ाई कर रहे थे। चारो भाइयों का एकदूसरे से प्यार और एक दूसरे के प्रति सम्मान देखकर लगा राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुध्न जैसे एक बार फिर धरती पर इस रूप में सामने है। समय बीता मेरे मित्र डाक्टर हो गए वे गोरखपुर में ही प्रैक्टिस करने की तैयारी में थे एक ख्याति प्राप्त फिजीशियन के यहां उन्होंने सहयोगी के तौर पर ज्वाइन भी कर लिया। डाक्टर साहब तो गोरखपुर में खुश थे मगर उनके बड़े भाइयों को लग रहा था कि यहां ग्रोथ नहीं मिलेगी। खूब दबाव बनाया तो उन्होंने परीक्षाएं दीं और भाजपा के नेता जी ने भी जोर लगाया। डाक्टर साहब एलएनजेपी दिल्ली जिसे तब इरविन अस्पताल के नाम से भी जाना जाता था वहां नियुक्ति पा ली। कुछ दिन तक घर का मोह उन्हें गोरखपुर खींचकर लाता रहा। बाद में उनका आना कम हो गया। इसी बीच उनकी शादी की तैयारियां घर में जोर पकडऩे लगीं। बड़े भाइयों ने एक बड़े घराने में बात चलाई। लड़की देखने के लिए डाक्टर साहब को जाना था। वे मेरे पास आए और बोले लड़की देखने चलना है। वे मुझे भी साथ ले गए। लड़की पसंद आई। लड़की के पिता किसी जिले में सीएमओ थे सो यह उम्मीद थी कि मेडिकल लाइन में भी अच्छा गाइडेंस मिल जाएगा और दान दहेज भी वे अपने पद के अनुसार दे रहे थे। सब कुछ तय हो गया।
दो तीन दिन के बाद अचानक एक रात डाक्टर साहब घर आए। रात काफी हो चुकी थी इसलिए पूछा कोई खास बात, जवाब तो नहीं मिला मगर उनके चेहरे की रंगत बता रही थी कुछ तो हुआ है। मेरे घर के लोग भी परेशान थे ऐसे अचानक रात में क्यों आए। डाक्टर साहब की हालत देख हम उन्हें अपने कमरे में ले गए। काफी देर बाद वे खुले कहा हम ये शादी नहीं कर पाएंगे। क्यों के जवाब में उन्होंने बताया कि वे दिल्ली में न चाहते हुए भी किसी सहयोगी के साथ शादी कर चुके हैैं। उनका जवाब सुनकर मेरा भी दिमाग घूम गया। मैने तुरत पूछा अपने घर में बताया या नहीं। बोले नहीं। अभी उनसे बात चल रही रही थी कि मेरा फोन बजने लगा उठाया तो दूसरे तरफ उनके बड़े भाई थे। वे बस यही पूछ रहे थे राजू आया है क्या? इधर डाक्टर साहब इशारों में कहने लगे कह दो नहीं आया। मगर हम झूठ नहीं बोल सके कहां हां यहीं पर हैैं। उन्होंने एक ठंडी सांस लेकर कहा उसे कहीं जाने मत देने हम आ रहे हैं। थोड़ी ही देर में उनके तीनों भाई और भी घर के लोगों के साथ मेरे घर पर थे। डाक्टर साहब जो पहले डरे हुए थे यहां तक की शादी करने के बाद भी बड़े भाइयों से हकीकत नहीं कह पाए और लड़की देखने चले गए थे अचानक जैसे लडऩे मरने को तैयार हो गए। वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे। इधर उनके भाई कई बार उन्हें मारने के लिए दौड़ पड़े हर बार हम या मेरे पिता जी बीच में आ जाते हम लोग भाइयों को समझा रहे थे ऐसे जबरदस्ती शादी करा के कई लोगों का जीवन बर्बाद होगा। आखिरकार सुबह तक हंगामे के बाद डाक्टर साहब को उनके हाल पर छोड़ उनके राम, लक्ष्मण और भरत जैसे भाई संबंध समाप्ति की घोषणा के बाद चले गए। बाद में पता चला सारे भाई अलग अलग हो गए। उनके पिता की मौत हुई तो अंतिम संस्कार के खर्चों और घर की संपत्ति को लेकर विवाद भी हुआ।
इधर एक विज्ञापन पढऩे को मिला जिसमें एक मां ने अपने बेटे से समस्त संबंध समाप्त करने की घोषणा की थी। कारण उन्होंने इतना ही दिया था कि वह और उसकी पत्नी मेरी बात नहीं मानते। ऐसे विज्ञापन अक्सर देखने को मिल जाते हैं। यह विज्ञापन उधमसिंह नगर के अंक में 20 अक्टूबर को प्रकाशित हुआ है। ठीक इसी प्रकार का विज्ञापन हमें एक सप्ताह पूर्व भी देखने को मिला था। यह भी उधमसिंह नगर के संस्करण में ही छपा। उसमें पिता ने बेटे से संबंध तोड़े थे। दो दिन पहले एक खबर हल्द्वानी संस्करण में प्रकाशित हुई कि बेटे की पिटाई से आहत बूढ़े पिता ने जान दे दी।
अक्टूबर बीस को ही एक खबर छपी कि मां-बाप को पीटने के बाद बेटे ने की जान देने की कोशिश। दरअसल मां-बाप उसके शराब पीने का विरोध कर रहे थे। कुछ दिन पहले तीन भाइयों ने अपनी मां को रामपुर से किराए पर शूटर बुलाकर जसपुर में हत्या करा दी थी। उस मां का कसूर यह था कि उसके खाते में पड़े चार लाख वह बेटों में बांटने को राजी नहीं थी।
कुछ वर्ष पूर्व मुरादाबाद में एक मां को उसके बेटे और बहू की चंगुल से अखबार और पुलिस वालों की मदद से मुहल्ले के लोगों ने मुक्त कराया था जिसे वे गैराज में बंद रखते थे। उसके रोने की सिसकियां मुहल्ले वालों को सुनाई पड़ीं तो वह किसी वृद्धाश्रम में पहुंचा दी गई। जहां तक मुझे याद है कोर्ट ने बेटे पर दंड स्वरूप प्रति माह नियत धनराशि देने का आदेश दिया था।
ऐसी रिश्तों को कलंकित करने वाली खबरें पढ़कर मन दुखी होता है। क्या धन और अपने सुख की इतना अंधा बना देती है कि हम उन्हें भूल जाते है। जिनकी गोद में खेल कर बड़े होते है। जो बचपन से लेकर जवानी तक हमारी हर जरूरत को पूरा करते है अपनी जरूरतें कम करके। जब हमारी बारी आती है सेवा की तो भी हम कभी बहाने बाजी करके किनारा कर लेते है तो कभी सीधे अत्याचार पर उतर आते है।
क्या देश में ऐसे बेटों पर लगाम लगाने के लिए समाज को महौल बनाने की जरूरत नहीं है। मेरा तो मानना है कि मां-बाप की सेवा को बेटे के कर्तव्य में उसी प्रकार शामिल किया जाना चाहिए जिस प्रकार पुश्तैनी संपत्ति में बेटे को अधिकार स्वत: मिलता है।

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