- 15 Posts
- 124 Comments
बात सुनने में अटपटी जरूर है मगर नजीते तो कुछ ऐसे ही इशारे कर रहे हैं। डीडी न्यूज के बाद जब आजतक, स्टार न्यूज और फिर धड़ाधड़ न्यूज चैनल खुलने लगे तो कयास लगाया जाने लगा कि अब हिंदी अखबारों का समूचा ढांचा ही ध्वस्त हो जाएगा। तब हिंदी अखबार थे भी दयनीय दशा में पत्रकारों को अंग्रेजी अखबारों के पत्रकारों के मुकाबले वेतन चौथाई के करीब हुआ करता था। मगर हुआ कयासों के बिल्कुल उलट। हिंदी अखबार और हिंदी पत्रकारिता को और बड़ा और विस्तृत फलक मिला। जबकि अंग्रेजी अखबारों का दायरा कुछ छोटा हुआ मध्यम वर्ग के परिवारों में कभी ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाने वाले या कंप्टीशन के नाम पर अंग्रेजी अखबार खरीदने वालों की तादाद कम हो गई है। जबकि मुहल्ले में दो की जगह दो सौ हिंदी अखबार पहुंचने लगे हैं। वेतन के मामले में जरूर अभी हिंदी अखबारों के लोग चौथाई से आधे तक ही पहुंच पाए हैं। टीवी चैनलों के समाचार भले ही हर घर तक स्थानीय समाचारों के साथ पहुंच रहे हों मगर लोग अखबार देखते जरूर हैं। यहां पिछले दिनों के एक वाकये का जिक्र इस जगह पर करना चाहूंगा जब एक न्यूज चैनल ने प्राकृतिक आपदा के मंडल भर के विद्यालय बंद करने की सूचना जारी की तो कुछ लोगों ने तो सीधे स्कूलों को फोन कर सत्यता जानी और तमाम लोगों के फोन अखबार के दफ्तरों में आए बावजूद इसके लोगों ने दूसरे दिन बच्चों को स्कूल भेजने के लिए तैयार कर दिया और अखबार का इंतजार किया। जब अखबार के छपे हुए शब्दों में छुट्टी की सूचना मिली तो लोगों ने यकीन किया कि हां छुट्टी हो गई है। वैसे हिंदी की सेवा, हिंदी का विस्तार रोज घर-घर में देखे जाने वाले सीरियल्स और फिल्मों ने जितना किया है इनके बिना न जाने कब तक हो पाता। आज जैसे महाराष्ट्र में मराठी, बंगाल में बंगाली और गुजरात में गुजराती को पहला दर्जा दिया जाता है और भाषाई विभाजन की खाई और गहरी होती। हां एक बात जरूर कचोटती है वह ये कि पहले हिंदी के साहित्यकार की उपज कुछ कमजोर हुई है क्योंकि चैन और अखबार दोनों लगातार साहित्यकारों की उपेक्षा कर रहे हैं।
Read Comments